मुंबई : डॉ. रोशन शेख जब 16 साल की उम्र में ट्रेन हादसे का शिकार हो गई. दोनों पैर काटने पड़े 89% हैंडिकेप्ट. 3 महीने अस्पताल में रही. घर की माली हालत ऐसी कि एक वक्त का खाना खाते तो दूसरे वक्त के लिए इधर-उधर सड़कों पर भटकना पड़ता था. लोग कहते थे तुम धरती पर बोझ हो. घर-परिवार के लिए बोझ हो. मर क्यों नहीं गई.
कभी-कभी तो रोशन शेख को ऐसा लगता था कि मर जाती तो ही ठीक था. लेकिन रोशन शेख का डॉक्टर बनने का सपना था. इसके लिए हाईकोर्ट तक गई और जीती भी. आज मुंबई के किंग एडवर्ड मेमोरियल हॉस्पिटल में डॉक्टर हैं.
मूल रूप से मैं यूपी की आजमगढ़ की रहने वाली डॉ. रोशन शेख के पिता मुंबई आकर जोगेश्वरी में अपनी बीवी, बेटे और 3 बेटीओं के साथ एक कमरे में गुजारा कर रहे थे. उनके पिता टाट बिछाकर कांदा बटाटा बेचकर बच्चों को पढ़ा रहे थे.
रोशन शेख की बहन ने 10वीं में स्कूल में टॉप किया. और रोशन शेख से अक्सर कहती थी कि पढ़ाई पर फोकस करो. हमारी किस्मत पढ़ाई से ही बदलेगी. उस वक्त रौशन शेख उम्र 8 साल की उम्र में बड़े भाई के साथ स्कूल जाती थी. और उनके पिता 3 किलोमीटर पैदल चलकर उनके लिए खाना लाते। स्कूल से आने के बाद भाई के साथ रोशन शेख भी कांदा बटाटा बेचती. दस का ढ़ाई किलो, दस का ढ़ाई किलो चिल्ला-चिल्ला कर बोलती थी. उनको लगता कि चिल्लाने से हमारी बिक्री ज्यादा होगी. कोशिश होती कि कैसे भी करके कॉपी-किताब के लिए पैसे जुट जाए. इस तरह 6-7 साल सड़कों पर कांदा बटाटा बेचा. जब 14 साल की हुई तो लग कहने लगे कि सयानी लड़की का सड़क पर खड़े होकर कांदा बेचना सही नहीं है. फिर घर में रहने लगी.
इसके बाद सिर पर दस-दस किलो की जींस की गठरी उठाकर लाती और घर में उसके फालतू धागे छुड़ाते. साथ ही कुंदन की ज्वेलरी बनाना, कपड़े सिलना, बटन छांटना जैसे काम किए. दिवाली पर क्राफ्ट मार्केट से लाइटें लाकर बेचते थे, ताकि कुछ रुपयों की व्यवस्था हो जाए. उनके पिता कहते थे कि जो कुछ भी करना है खुद के बल पर करना है, किसी के आगे हाथ नहीं फैलाना है.
डॉ. रोशन शेख बताती हैं कि मुझे याद है रमजान में इफ्तारी के लिए हमारे पास खजूर भी नहीं होता था. हमने चटनी और मोटी रोटी के साथ रोजे खोले हैं. पानी के लिए लाइन में खड़े हुए सुबह से शाम हो जाती, तब जाकर एक केन पानी मिलता था. इस बीच दीदी को डायलिसिस टेक्नीशियन की पार्ट टाइम नौकरी मिल गई. उन्हें 1500 रुपए मिलते थे. इससे हमें थोड़ी हिम्मत मिली. फिर मेरी भी 10वीं हो गई. मैंने मुंबई के जोगेश्वरी इलाके के सभी स्कूलों में टॉप किया. मैंने बहन से पूछा कि क्या करूं. उसने कहा कि मैं डॉक्टर नहीं बन सकी. तुम डॉक्टर बनो. मैं मदद करूंगी. इसके बाद मैंने 11वीं में साइंस स्ट्रीम में दाखिला लिया. फर्स्ट सेमेस्टर के पेपर खत्म हो गए थे. 7 अक्टूबर 2008 को मैं लोकल ट्रेन से बांद्रा से जोगेश्वरी जा रही थी. अंधेरी स्टेशन में मैं गेट के पास चली गई. ताकि उतरते वक्त भीड़ से बच सकूं. मुझे याद नहीं कि मुझे किसी ने धक्का दिया या मैं खुद ही गिर गई. एक ही झटके में ट्रेन के पटरियों पर आ गिरी. मेरे पैर के ऊपर से ट्रेन गुजर गई. मेरा एक पैर कटकर बुर्के में फंसा था. दूसरे पैर से खूब खून बह रहा था. दर्द इतना कि बता नहीं सकती.
धीरे-धीरे भीड़ इकट्ठी होने लगी. जोर से प्यास लग रही थी. मैं लोगों से मिन्नतें कर रही थी कि कोई पानी पिला दो. मेरे अब्बू-अम्मी को फोन कर दो. लेकिन कोई सामने नहीं आया. सब तमाशा देखते रहे. फिर शादाब नाम का एक आदमी दौड़ते हुए आया. उसने मुझे पानी पिलाया और मेरे घर फोन किया. तब तक पुलिस आ चुकी थी. आधे घंटे बाद मुझे स्ट्रेच्रर पर अस्पताल ले जाया गया. वहां डॉक्टरों की हड़ताल चल रही थी. मेरे जख्म पर बीटाडीन लगाकर छोड़ दिया गया. सारा दिन अकेली स्ट्रेचर पर पड़ी रही. मुझे किसी ने नहीं देखा. शाम होते-होते भाई वहां आ गया. मैंने भाई से कहा कि मेरा पैर कट गया है. उसने कहा कि कोई बात नहीं. सब ठीक हो जाएगा. थोड़ी देर बाद परिवार के बाकी लोग भी आ गए. अस्पताल वाले न तो मेरा इलाज कर रहे थे और न ही मुझे डिस्चार्ज कर रहे थे. काफी हंगामे के बाद उन लोगों ने मुझे रेफर किया. इसके बाद मैं दूसरे हॉस्पिटल में एडमिट हुई. दीदी और जीजा इसी अस्पताल में डायलिसिस टेक्नीशियन की नौकरी करते थे.
वहां डॉक्टर संजय कंथारिया ने मेरा इलाज करना शुरू किया. उन्होंने कहा कि अगर यह लड़की 24 घंटे जिंदा रह गई. तो बच सकती है. वरना मैं कुछ कह नहीं सकता. हादसे की वजह से मेरा काफी सारा खून बह चुका था. अनगिनत सर्जरी हुई. 24 घंटे के बाद मुझे होश आया. होश आने के बाद दीदी ने कहा रौशन तुम्हारा एक पैर नहीं रहा. मैंने कहा हां मुझे पता है. फिर वो बोली कि तुम्हारा दूसरा पैर भी नहीं रहा. इस बात ने मुझे बहुत तकलीफ दी. मैं बहुत रोई. मैं ये तो जानती थी कि ट्रेन से मेरा एक पैर कट चुका है. लेकिन वक्त पर इलाज न मिलने की वजह से दूसरे पैर में गैंगरीन हो गया था. लिहाजा उसे भी काटना पड़ा.
इस दौरान तीन महीने मैंने अस्पताल में जो झेला है. वो मैं ही जानती हूं. जो लोग अस्पताल में मिलने आते थे. वे बोलते कि लड़की है. पैर कट गए हैं. अब क्या करेगी. मां-बाप पर बोझ बन गई है. कल मां मर जाएगी तो क्या करेगी. वॉशरूम आना-जाना, खाना-पीना कैसे करेगी. इसकी शादी कैसे होगी….
तीन महीने बाद मैं अस्पताल से डिस्चार्ज हो गई. मां ही मुझे टॉयलेट ले जाती. नहलाती और खाना खिलाती. मुझे लगा कि इस उम्र में तो मुझे अम्मी की सेवा करनी चाहिए और वह मुझे गोद में उठाकर टॉयलेट लेकर जा रही हैं. ऊपर से लोग ताना मार रहे. मेरा हौसला और टूटता था.
डॉक्टर संजय कंथारिया से मेरी हालत देखी नहीं गई। उन्होंने मेरे जीजा से कहा कि इसपर तरस खाना बंद करो. यह खुद सारे काम करेगी और डॉक्टर भी बनेगी। इसे किताबें दो यह पढ़ाई करेगी. उन्होंने मुझसे कहा कि तुम अपने पैरों पर खड़ी हो जाओगी। आजकल बहुत अच्छी-अच्छी टेक्नीक आ गई हैं. मैं तुम्हें डॉक्टर बनने में हर संभव मदद करूंगा. बस तुम पढ़ाई करो. जीजा ने मुझे हाथों के बल चलना सिखाया. बेड से उतरना सिखाया. खुद टॉयलेट जाना सिखाया. धीर-धीरे मैं टॉयलेट सीट पर जाकर बैठने लगी. इस हादसे के बाद भी मैंने 11वीं ड्रॉप नहीं की. अम्मी मुझे व्हील-चेयर पर एग्जाम दिलवाने ले जाती थीं. मेरी टीचर्स मुझे घर आकर पढ़ाती थीं. स्कूल का पूरा मैनेजमेंट मेरे साथ था. स्टूडेंट्स से डोनेशन लेकर मेरी मदद भी की गई. आखिरकार 2009 में मुझे आर्टिफिशियल पैर लग गए.
इसके बाद मैंने तय कर लिया था कि अब मैं खड़ी हो गई हूं तो खड़ी होकर ही दिखाऊंगी. किसी पर बोझ नहीं बनूंगी. मैंने 12वीं की और कॉलेज में टॉप किया. मैंने मेडिकल एंट्रेंस का एग्जाम दिया. महाराष्ट्र में थर्ड रैंक मिली. मुझे खुशी का ठिकाना नहीं था. लगा कि अब तो मैं डॉक्टर बन ही गई हूं. जेजे अस्पताल में काउंसिलिंग थी. लेकिन मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया यानी MCI ने मुझे खारिज कर दिया. मुझसे बोला गया कि एक कानून है जिसके तहत 40 से 70% हैंडीकैप्ड कैंडिडेट को ही मेडिकल में एडमिशन मिल सकता है. आप 89% डिसेबल हैं, आपको दाखिला नहीं मिल सकता.
मैंने डॉ.संजय कंथारिया को फोन मिलाया. उन्होंने कहा कि सीधे बॉम्बे हाईकोर्ट जाओ. मैंने तो कोर्ट देखा ही नहीं था और न ही कुछ पता था कि कैसे याचिका लगाई जाती है. उन्होंने मुझे एक वकील बीपी पाटिल से बात करने लिए कहा. मैं बीपी पाटिल के पास गई और सारी बात बताई. बीपी पाटिल ने मेरा केस लड़ा. तीन महीने ट्रायल चला. MCI की दलील थी कि ये लड़की एक क्लास से दूसरे क्लास में कैसे जाएगी. इसकी वजह से लेक्चर डिले होगा. फिर डॉक्टर बनने के बाद मरीजों का इलाज कैसे कर सकेगी. इसलिए इसे दाखिला नहीं मिलना चाहिए.
केस की आखिरी सुनवाई थी। अम्मी-अब्बू और वकील बीपी पाटिल ने मुझसे कहा कि आज तुम लोकल ट्रेन से बॉम्बे हाईकोर्ट पहुंचो. पैर कटने के बाद मैं पहली बार लोकल ट्रेन से जोगेश्वरी से सीएसटी स्टेशन पहुंचकर बॉम्बे हाईकोर्ट पहुंची. मेरे वकील ने जज से कहा कि सर ये लड़की लोकल ट्रेन से यहां तक आई है. आप कैसे कह सकते हैं कि यह मेडिकल नहीं कर पाएगी. बीते तीन महीने से जज मुझे ऑब्जर्व कर रहे थे कि मैं कैसे चलती हूं. कैसे खाती हूं, कैसे काम करती हूं.
खैर फैसले का वक्त आया। मैंने अपने आंख कान बंद कर लिए थे. मुझे लगता था कि मैं केस हार जाऊंगी. तभी मेरे वकील दौड़कर पास आए और बोले- रौशन तुम जीत गई हो. तुम केस जीत गई हो… मुझे तो यकीन ही नहीं हो रहा था. मैं उस लम्हे को शब्दों में बयां नहीं कर सकती. अगले दिन अखबारों में मेरी खबर छपी कि एक लड़की के दाखिले के लिए कानून बदलना पड़ा.
इस तरह मुझे MBBS में दाखिला मिल गया. कॉलेज में मैंने बहुत बहुत मेहनत की. 4-4 घंटे प्रैक्टिकल के लिए खड़े रहना. लिफ्ट अक्सर बंद रहती थी तो सीढ़ियों से जाना. ऊपर से परिवार की तंगहाली. पहले साल मैंने कॉलेज में टॉप किया. वहां से मुझे हौसला मिला.
मेरे पैरों में काफी दर्द होता था. हर रात रोती भी थी. फिर खुद को समझाती कि मुझे दूसरी जिंदगी मिली है. पैर ही तो गए हैं. दिमाग तो है न. बाकी बॉडी पार्ट तो हैं. मैं अपने दिमाग से अपने पांव पर खड़ी होकर रहूंगी. 2016 में मेरा MBBS में मैंने टॉप किया.
2018 में मैंने MD के लिए अप्लाई किया. तो फिर वही कानून आड़े आया. मैं बहुत उदास हो गई. इसके बाद अखबारों में मेरे बारे में खबर छपी. उसी दौरान सांसद किरीट सोमैया का फोन आया. मैंने उन्हें बताया कि फॉर्म भरने में सिर्फ 2 दिन बचे हैं. नियमों का हवाला देकर मुझे रोका जा रहा है. उन्होंने मेरी बात सुनी और फोन रख दिया. कुछ देर बाद मेरा फोन बजा. उधर से आवाज आई कि मैं हेल्थ मिनिस्टर जेपी नड्डा बोल रहा हूं. फौरन फॉर्म भरो. एक वक्त के लिए मेरा तो दिमाग ही काम नहीं किया कि ये हो क्या रहा है. इससे पहले मैं उन्हें जानती भी नहीं थी. जब मैं फॉर्म भरने लगी तो देखा कि 47% डिसेबिलिटी का फैक्टर हटा दिया गया था. मैंने फॉर्म भरा. MD में मुझे एडमिशन मिला. देश के आखबारों में मेरी फोटो और खबर छप गई कि रौशन की वजह से 20 साल पुराने कानून में बदलाव हो गया है.
MD करने के बाद मैंने अपने जैसे लोगों को मोटिवेट करना शुरू किया. मुझे अलग-अलग जगहों पर स्पीच के लिए बुलाया जाने लगा. मुझे 400 से ज्यादा नेशनल और इंटरनेशनल अवॉर्ड मिल चुके हैं. 23 साल की डॉ. रोशन शेख अब अपनी पढ़ाई पूरी करके पैथॉलजी की डॉक्टर बन गईं हैं. मुंबई के किंग एडवर्ड हॉस्पिटल में अब रोशन मरीजों का इलाज करेंगी.